ब्राह्मण और ठाकुर के बीच हुई थी वर्चस्व की जंग

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आंख मिलाकर बात करने पर मार देते थे गोली
कहलाई यूपी की सबसे बड़ी अदावत
गोरखपुर। पूर्वी उत्तर प्रदेश में बहुबलियों के साम्राज्य की बात हो और गोरखपुर के पंडित हरिशंकर तिवारी से शुरुआत न हो तो कहानी अधूरी रहेगी। हरिशंकर तिवारी के प्रतिद्वंदी थे वीरेन्द्र प्रताप शाही। ब्राह्मण बनाम ठाकुर के समीकरण पर दोनों का साम्राज्य कायम था। रेलवे के ठेके दोनों के लिए अहम थे। हरिशंकर तिवारी ने धीरे-धीरे राजनीति में कदम बढ़ा दिया। यहां से राजनीति और अपराध में कुछ ज्यादा घुलमिल गए।
गोरखपुर आज विकास का शहर और मुख्यमंत्री के शहर के रूप में भले ही पहचान बना चुका है लेकिन इतिहास में इसी गोरखपुर में अपराध की एक नई कहानी लिखी गई थी। बात 1970 के दशक की है जब देश में जेपी का आंदोलन चल रहा था। छात्र नेता देश को बदलने के जुनून में सड़कों पर तरह-तरह के आंदोलन में जुटे थे। वहीं गोरखपुर के छात्र अपने वर्चस्व को कायम करने में जुटे थे। उस समय गोरखपुर यूनिवर्सिटी के दो छात्र नेता थे। एक बलवंत सिंह और दूसरे हरिशंकर तिवारी। इन दोनों में हमेशा वर्चस्व को लेकर लड़ाई थी। इस बीच बलवंत सिंह को वीरेंद्र प्रताप शाही नाम का एक नया लड़का मिला जो उसकी ही जाति का था। यह वो दौर था जब जाति को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी जाती थी। जिले में ब्राह्मण और ठाकुर दोनों अपना-अपना वर्चस्व कायम रखने में जुटे थे। जिले में हालात ऐसे थे कि लोग पेट्रोल भरा के पैसे नहीं देते थे और आंख मिलाकर बात करने पर गोली मार देते थे। ऐसी घटनाएं आम होने लगी थी। फिर क्या लोगों को वर्चस्व के साथ पैसे की अहमियत भी समझ में आने लगी। इस दौर में रेलवे स्क्रैप की ठेकेदारी मिलने लगी थी। बताया जाता है कि ठेके के माध्यम से बड़ी आसानी से पैसा कमाया जा सकता था। हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही दोनों ने अपने-अपने गुट को मजबूत करना शुरू कर दिया। इटली के माफियाओं की तर्ज पर गैंग बना लिए गए। दोनों बाहुबलियों के बीच जारी वर्चस्व की जंग में पूरा शहर हिल गया था। रेलवे के ठेके और अन्य सरकारी कामों के लिए दोनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई थी।
मंडल के चार जिलों में कहीं न कहीं रोज गैंगवार में निकली गोलियों की तड़तड़ाहट सुनाई देती थी। आए दिन दोनों तरफ के कुछ लोग मारे जाते थे। कई निर्दोष लोग भी मरते थे। इसी दौरान लखनऊ और गोरखपुर विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके युवा विधायक रविंद्र सिंह की भी हत्या हो गई। कहते हैं कि इसके बाद ठाकुरों के गुट ने वीरेंद्र प्रताप शाही को अपना नेता मान लिया। गोरखपुर बाहुबलियों के राज से पूरी तरह रूबरू हो चुका था। सरकारी सिस्टम पूरी तरह फेल हो चुका था। प्रदेश की राजधानी में इन दोनों गुटों ने अपनी-अपनी एक समानांतर सरकार बना ली थी। दरबार लगने लगे। जमीनों के मुद्दे इनके दरबार में आने लगे। लोग कोर्ट जाने से बेहतर इनके दरबार को समझने लगे थे।

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