आजमगढ़ : जीडी ग्लोबल स्कूल में दो दिवसीय कला संगम कार्यक्रम का हुआ आयोजन

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नृत्य और गायन केवल प्रदर्शन की विधाएँ नहीं हैं, ये आत्मा की भाषा है-गौरव अग्रवाल, प्रबंधक
आजमगढ़। "नृत्यं कला स्वरूपं स्यात, हृदयस्य स्पन्दनं यथा। रसानुभूतिं जनयति, आत्मानन्दस्य कारणम॥" को चरितार्थ करने के उद्देश्य से जीडी ग्लोबल स्कूल में शनिवार को विद्यार्थियों के सर्वांगीण हेतु दो द्विवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रम "कला-संगम" का आयोजन बहुत ही भव्यपूर्वक किया गया। कार्यक्रम का आरंभ विद्यालय की निदेशिका स्वाति अग्रवाल, प्रबंधक गौरव अग्रवाल तथा प्रधानाचार्या दीपाली भुस्कुटे ने इस कार्यक्रम के निर्णायक मंडल अभय सिंह, तेजस्विनी बरनवाल एवं श्रेया चित्रांशी के साथ मां वीणापाणि की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलन से किया। यह कार्यक्रम विद्यालय सदन स्तरीय था जिसमें प्रथम दिवस पर संगीत तथा गायन-वादन पर राग-भैरवी पर विद्यालय के चारो सदन ने आकर्षक भजन प्रस्तुत किए। भजन की प्रस्तुति ने सभी श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया। कला-संगम के दूसरे दिन का थीम पौराणिक कथा पर आधृत नृत्य पर था। जिसमें चारों सदन के छात्र-छात्राओं ने रक्तबीज, समुद्र-मंथन, दशावतार तथा कृष्णलीला पर अपनी मनमोहक नृत्य एवं भाव-भंगिमाओं से सभी दर्शकों को भाव-विह्वल कर दिया। गायन-वादन की प्रतिस्पर्धा में प्रथम विजेता नेप्चून सदन, द्वितीय स्थान पर मार्स सदन तथा तृतीय स्थान पर वीनस सदन ने खिताब अर्जित किया वहीं नृत्योत्सव पर प्रथम विजेता वीनस सदन, द्वितीय स्थान पर मार्स सदन तथा तृतीय स्थान पर यूरेनस सदन ने जीत की उपलब्धि दर्ज की।
कार्यक्रम की सराहना करते हुए विद्यालय की निदेशिका स्वाति अग्रवाल ने कहा कि इस प्रकार के कार्यक्रम में बच्चे जिसकी भूमिका अदा करते हैं वैसे ही गुण अंगीकार करते हैं। श्रावण मास के इस पावन पर्व पर यह कार्यक्रम दैवीय गुणों से हम सभी को ओतप्रोत करते हैं। प्रबंधक गौरव अग्रवाल ने कहा कि नृत्य और गायन केवल प्रदर्शन की विधाएँ नहीं हैं, ये आत्मा की भाषा हैं। यह कलोत्सव न केवल आपकी प्रतिभा को मंच देता है, बल्कि अनुशासन, आत्मविश्वास और भावनाओं की अभिव्यक्ति का भी माध्यम है। नृत्य से हमारी नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा के रूप में परिणत होती है। नृत्य का ही दूसरा रूप जुम्बा योगा है। प्रधानाचार्या दीपाली भुस्कुटे ने कहा कि आप जब सुरों में डूबकर गाते हैं या ताल पर थिरकते हैं, तब केवल कला नहीं गढ़ते, आप संस्कृति को सजीव करते हैं, परंपरा को आगे बढ़ाते हैं और अपने भीतर के आनंद को संसार से बाँटते हैं। इस मंच पर भाग लेना, हार-जीत से बढ़कर, एक अनुभव है—एक यात्रा है आत्म-विकास की।

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