ग्लोबल वार्मिंग का खेती और जनजीवन पर बढ़ते हानिकारक प्रभाव

Youth India Times
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Report by- ashok jaiswal
बलिया। यूथ इंडिया टाइम्स एक बार फिर से किसान भाईयों के लिए ग्लोबल वार्मिंग का खेती और जनजीवन पर बढ़ते हानिकारक प्रभाव से सम्बंधित विषय पर रिसर्च स्कालर कल्याण सिंह से बातचीत का अंश प्रस्तुत कर रहा है। आशा है कि आप लोग इस लेख का अवश्य फायदा अच्छी फसल के लिए उठाएंगे। 



प्रस्तावना:- मानव सभ्यता के उदय के साथ ही साथ उसके उत्तरोत्तर विकाश के क्रम में जब मनुष्य के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों में संतुलन एवं समन्वय की भावना बिगड़ जाती है । तब प्रकृति भी अपना विनाशकारी प्रभाव इस धरा पर विभिन्न रूपो में अर्थात बाढ़, सूखा,अत्यधिक वर्षा, भूकंप, सुनामी,चक्रवात आदि रूपों में समय - समय पर इस धरा के विभिन्न क्षेत्रों में अपना विनाशकारी एवं हानिकारक प्रभाव दिखाती रहती है। जिसके गंभीर परिणाम आमजनमानस को भुगतने पढ़ते है। यह कही न कही मानव के प्रकृति के साथ अपने स्वार्थ हेतु प्राकृतिक संसाधनो के दोहन के कारण आज दिखाई दे रहे है।
वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग):- वर्तमान काल खंड में इस धरा पर ग्रीन हाउस गैसों (मीथेन,नाइट्रस ऑक्साइड,क्लोरोफ्लोरो कार्बन,ओजोन गैस) के बढ़ते प्रभाव तथा अत्यधिक मात्रा में बढ़ते उत्सर्जन के कारण वायुमंडल के औसत तापमान में लगातार बृद्धि का जारी रहना चिंता का विषय है। कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अकेले मीथेन गैस का प्रतिशत लगभग 14 -15 प्रतिशत के आसपास जा पहुचा है। वहीं दूसरी तरफ खेती में लगातार नाइट्रोजन उर्वरको के अंधाधुंध तथा अनियमित तरीके से प्रयोग ने इसे और ही बढ़ा दिया है । आज आधुनिक कृषि में सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन रासायनिक उर्वरकों द्वारा हो रहा है। खेती में नाइट्रोजन, फास्फोरस, और पोटास का आदर्श अनुपात 4:2:1 है लेकिन पंजाब प्रांत में यह अनुपात अत्यधिक उत्पादन लेने के स्वार्थ के कारण आज 31:8:1 तथा हरियाणा राज्य में 28:6:1 तक जा पहुचा है। नाइट्रोजन युक्त उर्वरको में यूरिया के अनियमति मात्रा में प्रयोग से नाइट्रस ऑक्साइड के रूप में ग्रीन हाउस गैसों के ज्यादा मात्रा में उत्सर्जन से ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोत्तरी हुई जिससे वैश्विक तपन में बृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन होने के करकं आज खेती सहित आम जनमानस के सामने संकट के बादल मंडरा रहे है। ग्रीन हाउस गैसों के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले नाइट्रस ऑक्साइड लगभग 300 गुना अधिक प्रभावसाली है। लगातार पूर्वी उत्तर भारत सहित अन्य राज्यो में धान-गेंहू की लगातार खेती से मीथेन गैस के साथ साथ नाइट्रस गैसों का अत्यधिक मात्रा में उत्सर्जन बढा तो वही दूसरी ओर धान की खेती से अत्यधिक मात्रा में मीथेन गैस को बढ़ावा मिला।।
2):- खेती पर जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभाव:-।
बाढ़:-आज वैश्विक तपन में निरंतर बृद्धि होने के कारण असामयिक वर्षा होने के साथ ही साथ ग्लेशियर के पिघलने के कारण बाढ़ की समस्या एक गम्भीर विषय है। जलवायु परिवर्तन ने बाढ़ को आपदा का रूप दे दिया है।
सूखा:- तापमान में लगातार बृद्धि एवं वाष्पीकरण की दर तीव्र होने के परिणामस्वरूप आज खेती में सूखाग्रस्त बढ़ता ही जा रहा है।



मुख्य कारण:- वर्तमान कालखंड में बढ़ते शहरीकरण के कारण जलवायु परिवर्तन की दर को और तीव्र कर दिया है एक तरफ खेती योग्य भूमि मकानो में परिवर्तित हो जा रही है तो वही दूसरी ओर पेड़ - पौधों की संख्या भी तेजी से घट रही है भारत मे 1955 से 2000 के बीच करीब 2-3 लाख हेक्टेयर भूमि खेती और वन भूमि आवसीय भूमि में तब्दील हो चुकी है।
4):- ग्लोबल वार्मिंग के हानिकारक प्रभाव;
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली के अनुसार मात्र एक सेंट्रिग्रेट तापमान में बृद्धि से भारत मे 40 से 50 लाख टन गेंहू की उपज कम हो सकती है। प्रायः अनुमान लगाया जा रहा है कि धान में 2 सेंटीग्रेड की बृद्धि उत्पादन को 0.75 टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रभावित कर सकती है।।
निवारण:-
1) :-जैविक खेती से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 36 प्रतिशत कम किया जा सकता है ।
2):-फसल विविधीकरण को खेती में अपनाकर इससे निजात पाई जा सकती है।
3):-फसल चक्र को खेती में प्रभावी तरीके से अपनाया जाए।
4):- समन्वित उर्वरक प्रबंध, खरपतवार प्रबंध अपनाया जाए।
लेखक:- डॉ एस वी सिंह 
व कल्याण सिंह (गोल्ड मेडलिस्ट)

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