हिंदू-सिख एकता की मिसाल बना श्री सुंदर गुरुद्वारा मातबरगंज का शहीदी समारोह
आजमगढ़। श्री सुंदर गुरुद्वारा मातबरगंज में मंगलवार को सिख धर्म के नौवें गुरु, हिंद दी चादर गुरु तेग बहादुर साहिब महाराज तथा उनके तीन साथियों भाई मति दास, भाई सति दास और भाई दयाला का 350वाँ शहीदी दिवस बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया गया। सुबह से ही सिख समाज के साथ-साथ बड़ी संख्या में हिंदू समाज के लोग भी गुरुद्वारे में पहुँचे और गुरु महाराज को नमन कर उनके बलिदान को याद किया। यह दृश्य हिंदू-सिख एकता और सांप्रदायिक सौहार्द की अनुपम मिसाल बना। सिख इतिहास में गुरु तेग बहादुर साहिब को 'हिंद दी चादर' इसलिए कहा जाता है क्योंकि 1675 में मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा कश्मीरी पंडितों सहित सभी गैर-मुसलिमों पर जबरन इस्लाम कबूल करने का दबाव डाला जा रहा था। उस समय गुरु तेग बहादुर ने धर्म और अंत:करण की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए खुला विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि 'सिर जाए तो जाए, पर केश नहीं जाएंगे'। औरंगजेब के आदेश पर 24 नवंबर 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु जी को उनके तीन साथियों के साथ क्रूरता से शहीद कर दिया गया। भाई मति दास जी को आरे से चीर दिया गया, भाई दयाला जी को उबलते तेल के कढ़ाहे में डाल दिया गया और भाई सति दास जी को जिंदा जलाया गया। इसके बावजूद गुरु जी टस से मस नहीं हुए और अंत में उनका सिर कलम कर दिया गया। आजमगढ़ के गुरुद्वारे में सुबह अरदास और कीर्तन के बाद पूरा परिसर ह्लधन्न धन्न श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जीह्व के जयकारों से गूंज उठा। संगत ने गुरु महाराज के बताए मार्ग झ्र सत्य, न्याय और धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति अपनी आस्था दोहराई। कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने कहा कि गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान आज भी हमें सिखाता है कि अन्याय के सामने कभी सिर न झुकाएं और हर कीमत पर मानवता व धर्म की रक्षा करें। गुरु तेग बहादुर की यह शहादत न सिर्फ सिख इतिहास बल्कि पूरे भारत के लिए गौरव और प्रेरणा का स्रोत है। उनके बलिदान ने ही आगे चलकर उनके पुत्र गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।
