फर्जी एनकाउंटर में 34 पुलिसकर्मियों की जमानत अर्जी खारिज

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बस से उतारकर 10 सिखों की गई थी हत्या
उत्तर प्रदेश। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने पीलीभीत में 1991 में 10 सिखों की फर्जी एनकाउंटर में हत्या मामले में 34 पुलिसकर्मियों की जमानत याचिका खारिज कर दी है। इन 34 पुलिसकर्मियों को 2016 में निचली अदालत ने दोषी ठहराया गया था।
हाईकोर्ट ने याचिका खारिज करने के दौरान कहा कि अपीलों के विचाराधीन रहने के दौरान रिहा करने का कोई औचित्य नहीं है। कोर्ट ने उनकी अपीलों पर अंतिम सुनवाई के लिए 25 जुलाई की तारीख तय की है। यह आदेश जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बृजराज सिंह की पीठ ने दिया।
अभियोजन पक्ष के अनुसार कुछ सिख तीर्थयात्री 12 जुलाई 1991 को पीलीभीत से एक बस से तीर्थयात्रा के लिए जा रहे थे। इस बस में बच्चे और महिलाएं भी थीं। इस बस को रोक कर 11 लोगों को उतार लिया गया। इनमें से 10 की पीलीभीत के न्योरिया, बिलसांदा और पूरनपुर थानाक्षेत्रों के धमेला कुंआ, फगुनिया घाट व पट्टाभोजी इलाके में एनकाउंटर दिखाकर हत्या कर दी गई। आरोप है कि 11वां शख्स एक बच्चा था जिसका अब तक कोई पता नहीं चला।
इस केस की जांच पहले पुलिस ने किया, लेकिन केस में फाइनल रिपोर्ट लगा दी। जिसके बाद एक अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने जांच सीबीआई को सौंप दिया। सीबीआई ने विवेचना के बाद 57 अभियुक्तों को आरोपित किया। विचारण के दौरान दस अभियुक्तों की मौत हो गई। सीबीआई की लखनऊ स्थित विशेष अदालत ने 4 अप्रैल 2016 को केस में 47 अभियुक्तों को घटना में दोषी करार दिया और उम्र कैद की सजा सुनाई। जिसके खिलाफ सभी ने हाईकोर्ट में अलग-अलग अपीलें दाखिल किया। अपीलों के साथ सभी ने जमानत की अर्जियां भी दी ताकि उन्हें अपीलों के विचाराधीन रहने के दौरान जमानत मिल जाये।
अपील करने वाले पुलिसवालों की ओर से दलील दी गई कि मारे गए दस सिखों में से बलजीत सिंह उर्फ पप्पू, जसवंत सिंह उर्फ ब्लिजी, हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटा तथा सुरजान सिंह उर्फ बिट्टू खालिस्तान लिब्रेशन फ्रंट के आतंकी थे, इसके साथ ही उन पर हत्या, डकैती, अपहरण व पुलिस पर हमले जैसे जघन्य अपराध के मामले दर्ज थे। अपील करने वालों की ओर से आगे दलील दी गई थी कि मृतकों में कई का लम्बा आपराधिक इतिहास था। यही नहीं वे खालिस्तान लिब्रेशन फ्रंट नामक आतंकी संगठन के सदस्य थे।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि मृतकों में से कुछ का कोई आपराधिक इतिहास नहीं था, ऐसे में सभी को आतंकी मानकर उन्हें उनकी पत्नियों और बच्चों से अलग कर के मार देना किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोर्ट ने आगे कहा कि मृतकों में से कुछ यदि असमाजिक गतिविधियों में शामिल भी थे और उनका आपराधिक इतिहास था, तब भी विधि की प्रक्रिया को अपनाना चाहिए था। इस प्रकार के बर्बर और अमानवीय हत्याएं उन्हें आतंकी बताकर नहीं करनी चाहिए थी

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