उप्र का वह डॉन जिसने ली थी भाजपा सीएम की सुपारी

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लखनऊ। असली गैंगस्टर जो है, वो मुंबई का भीकू म्हात्रे है. या बेटा वासेपुर का फैजल खान है. फिल्मों के बड़े-बड़े शौकीन लोग सब यही मानते हैं. लेकिन जैसा तुम पिक्चर-उच्चर में देखते हो, वैसा और उससे कहीं ज्यादा, उत्तर प्रदेश की ‘उद्यमी’ और ‘ऊधमी’ धरती पर बहुत पहले हो चुका है. कहानी है यूपी के उस डॉन की, जो अपराध और ताकत की सीढ़ियां इस तेजी से चढ़ा, जिस तेजी से जीटीए वाइस सिटी के मिशन पूरे किए जाते हैं. बहन को छेड़ने वाले का मर्डर करके वह बदमाश बना. फिर कई नेताओं और बदमाशों का काम लगा के कच्ची उम्र में बड़ी हैसियत बना ली. एक दौर में यूपी के अखबार उसी की खबरों से रंगे होते थे. लखनऊ के हर नुक्कड़, चाय की दुकान और पान के ठीहों पर उसी की बातें होती थीं. लेकिन तब हद हो गई, जब उसने प्रदेश के चीफ मिनिस्टर कल्याण सिंह की सुपारी ले ली. इस सुपारी की कीमत थी 6 करोड़ रुपये.
कहानी शुरू से-लड़के का नाम था श्रीप्रकाश शुक्ला. गोरखपुर के मामखोर गांव में उसके बाप मास्टरी करते थे. खुराक अच्छी थी तो श्रीप्रकाश पहलवानी में निकल गया. लोकल अखाड़ों में उसने अच्छा नाम कमाया. लेकिन पुलिस रिकॉर्ड में पहली बार नाम आया 20 साल की उमर में. साल था 1993. राकेश तिवारी नाम के लफंगे ने उसकी बहन को देखकर सीटी बजा दी. श्रीप्रकाश ने उसे तत्काल मार डाला और पुलिस से बचने के लिए बैंकॉक भाग गया.
लौटा तो उसके मुंह में खून लग चुका था और उसे ज्यादा की दरकार थी. बिहार में मोकामा के सूरजभान में उसे गॉडफादर मिल गया. धीरे-धीरे उसने अपना एंपायर बिल्ड किया और यूपी, बिहार, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और नेपाल में सारे गैरकानूनी धंधे करने लगा. उसने फिरौती के लिए किडनैपिंग, ड्रग्स और लॉटरी की तिकड़म से लेकर सुपारी किलिंग तक में हाथ डाल दिया. एक अंदाजे के मुताबिक, अपने हाथों से उसने करीब 20 लोगों की जानें लीं.
रंगबाजी भी, बदमाशी भी, अय्याशी भी-बदमाशी के साथ वह आला दर्जे का अय्याश भी था और आखिर में इसी आदत ने उसका काम लगाया. उसकी पसंद थीं, महंगी कॉलगल्र्स, बड़े होटल, मसाज पार्लर, सोने की जंजीरें और तेज भागने वाली कारें. फिल्मी आदमी था. दोस्तों के सामने डायलॉग मारता रहता था. उस दौर में वह सेलफोन का बड़ा दीवाना था. डींगे हांकता था कि उसका टेलीफोन का खर्च रोजाना 5 हजार रुपये है. जाहिर है, जिस आर्थिक बैकग्राउंड से वह आता था, पैसे का आकर्षण उसके लिए सहज था.
रंगबाजी और बदमाशी कभी एक-दूसरे के आड़े नहीं आई. श्रीप्रकाश एक शान-ओ-शौकत वाली जिंदगी जी रहा था. लेकिन उसे और ज्यादा चाहिए था. उसे एहसास था कि यूपी में बड़े-बड़े माफिया हैं जो उसे नौसिखिये से ज्यादा नहीं समझेंगे. उन्हें ठोंक-पीट के ही अपने नीचे लाना होगा. उसने तय कर लिया कि वह एक-एक करके हर मठाधीश का काम लगाएगा.
शाही को बीच लखनऊ भून दिया-यूपी में क्राइम की दुनिया की धुरी था, महाराजगंज के लक्ष्मीपुर का विधायक वीरेंद्र शाही. 1997 की शुरुआत में श्रीप्रकाश ने लखनऊ शहर में वीरेंद्र शाही को गोलियों से भून दिया. हल्ला हो गया भाई. नए लड़के ने शाही को पेल दिया. पुराने माफियाओं की भी चोक ले गई. श्रीप्रकाश ने अपनी हिट लिस्ट में दूसरा नाम रखा कल्याण सरकार में कैबिनेट मंत्री हरिशंकर तिवारी का. जो चिल्लूपार विधानसभा सीट से 15 सालों से विधायक थे. जेल से चुनाव जीत चुके थे. श्रीप्रकाश ने अचानक तय किया कि चिल्लूपार की सीट उसे चाहिए. उसने बहुत कम समय में बहुत दुश्मन बना लिए. यूपी कैबिनेट में हरिशंकर तिवारी को छोड़कर वह पूरी ब्राह्मण लॉबी के करीब था. कल्याण सिंह को वह निजी दुश्मन मानता था. एसटीएफ की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रभा द्विवेदी, अमरमणि त्रिपाठी, रमापति शास्त्री, मार्कंडेय चंद, जयनारायण तिवारी, सुंदर सिंह बघेल, शिवप्रताप शुक्ला, जितेंद्र कुमार जायसवाल, आरके चैधरी, मदन सिंह, अखिलेश सिंह और अष्टभुजा शुक्ला जैसे नेताओं से उसके रिश्ते थे.
बिहार के बाहुबली मंत्री का मर्डर-बिहार सरकार में बाहुबली मंत्री थे बृज बिहारी प्रसाद. यूपी के आखिरी छोर तक उनका सिक्का चलता था. श्रीप्रकाश शुक्ला ने पटना में उन्हें गोलियों से भून डाला. 13 जून 1998 को वह इंदिरा गांधी हॉस्पिटल के सामने वह अपनी अपनी लाल बत्ती कार से उतरे ही थे कि एके-47 से लैस 4 बदमाश उन्हें गोलियों से गुड आफ्टरनून कह के फरार हो गए. इस कत्ल के साथ श्रीप्रकाश का मैसेज साफ था, कि रेलवे के ठेके को उसके अलावा कोई छू नहीं सकता. कई छुटभइयों बदमाशों को तो उसने दौड़ा दौड़ा कर मारा था.
बृजबिहारी के कत्ल का मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि यूपी पुलिस को ऐसी खबर मिली कि उनके हाथ पांव फूल गए. श्रीप्रकाश शुक्ला ने यूपी के सीएम कल्याण सिंह की सुपारी ले ली थी. 6 करोड़ रुपये में सीएम की सुपारी लेने की खबर यूपी पुलिस की एसटीएफ के लिए बम गिरने जैसी थी.
हाथ धोकर पीछे पड़ी एसटीएफ-एसटीएफ का अब एक ही मकसद था- श्रीप्रकाश शुक्ला, जिंदा या मुर्दा. सारे घोड़े दौड़ा दिए गए. अगस्त 1998 के आखिरी हफ्ते में पुलिस को अहम सुराग मिला. पता चला कि दिल्ली के वसंत कुंज में श्रीप्रकाश ने एक फ्लैट लिया है. उसका धंधा अंधेरे में ही परवान चढ़ता. शाम का झुटपुटा होते ही वह अपने मोबाइल फोन से कॉल करने लगता. श्रीप्रकाश ने लखनऊ में 105 फ्लैट बनाने वाले एक बिल्डर को अपनी जिंदगी की आखिरी धमकी दी थी. उसकी मांग सीधी थी, ‘हर फ्लैट पर 50 हजार रुपये की रंगदारी.’
मगर उससे एक बड़ी गलती हो गई. उसके पास 14 सिम कार्ड थे. लेकिन पता नहीं क्यों, जिंदगी के आखिरी हफ्ते में उसने एक ही कार्ड से बात की. इससे पुलिस को उसकी बातचीत सुनना और उस इलाके को खोजना आसान हो गया. 21 सितंबर की शाम एक मुखबिर ने एसटीएफ को बताया कि अगली सुबह 5.45 बजे शुक्ला रांची के लिए इंडियन एअरलाइंस की फ्लाइट लेगा. दिल्ली एयरपोर्ट पर घात लगाने का प्लान बना. तड़के 3 बजे पुलिस तैनात हो गई, पर वह नहीं आया, लेकिन दोपहर बाद पुलिस की किस्मत ने पलटा खाया. शुक्ला अब भी अपना मोबाइल फोन इस्तेमाल कर रहा था.
पुलिस को पता चला कि वह वसंत कुंज के अपने ठिकाने से निकलकर अपनी गर्लफ्रेंड से मिलने गाजियाबाद जाएगा. पुलिस ने उसकी वापसी के समय जाल बिछा दिया. दिल्ली-गाजियाबाद स्टेट हाइवे पर फोर्स लग गई. दोपहर 1.50 बजे उसकी नीली सिएलो कार मोहननगर फ्लाइओवर के पास दिखी तो वहां पुलिस की 5 गाड़ियां तैनात थीं. गाड़ी का नंबर एचआर 26 जी 7305 फर्जी था, वह किसी स्कूटर को आवंटित था.
इधर से 45 गोलियां चलीं उधर से 14-गाड़ी शुक्ला चला रहा था और अनुज प्रताप सिंह उसके साथ आगे और सुधीर त्रिपाठी पीछे बैठा था. उसे खतरा महसूस हुआ. उसने स्पीड बढ़ाई और पुलिस की पहली और दूसरी गाड़ी को चकमा दे दिया. तभी इंस्पेक्टर वीपीएस चैहान ने अपनी जिप्सी उसकी कार के आगे अड़ा दी. खतरे को सामने देख शुक्ला ने बाएं घूमकर गाड़ी तेजी से यूपी आवास विकास कालोनी की तरफ भगाई. पुलिस ने पीछा किया. स्टेट हाइवे से एक किलोमीटर हटकर उसे घेर लिया गया. उसने भी रिवॉल्वर निकाल ली. उसने 14 गोलियां दागीं तो पुलिस वालों ने 45. मिनटों में उसका और उसके साथियों का काम लग गया. तारीख थी 22 सितंबर 1998. सवा 2 बजे तक ऑपरेशन बजूका पूरा हो गया था.
शुक्ला का ऐसा अंत नहीं होता अगर वह बदमाशी और रंगबाजी के नशे में चूर न होता. वह राजनीति में उतरना चाहता था और मुमकिन है कि जल्दी ही कानून से पटरी बैठा लेता. उसकी मौत से कुछ महीनों पहले लोग मजाक में कहने लगे थे कि कहीं वह यूपी का मुख्यमंत्री न बन जाए. वैसे श्रीप्रकाश शुक्ला की जिंदगी पर पिक्चर भी बन चुकी है. 2005 में आई थी, अरशद वारसी की ‘सहर.’

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