आजमगढ़: दिव्यांग बच्चों को मिला सैनी के ज्ञान का सहारा

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60 से अधिक बच्चे को दे रहें शिक्षा

रिपोर्ट-वेद प्रकाश सिंह ‘लल्ला’
महराजगंज-आजमगढ़। व्यक्ति के जीवन में गुरू की महत्ता को वैसे तो गोविंद से ऊपर बताया गया है किंतु ऐसे शिक्षक जिनकी आवाज सुनकर ही बच्चे पुलकित हो उठें तथा मिलने पर आंखों में अपनत्व के आंसू छलक उठे तो समझ लें कि गुरु की सार्थकता सिद्ध हो चुकी है । वह भी बच्चे सामान्य के बजाय दिव्यांग हों तो ऐसे गुरु को नमन करना तो बनता ही है । कुछ ऐसा ही महराजगंज कस्बा निवासी सैलानी सैनी के साथ भी है जिन्हें दिव्यांग बच्चों की वेदना ने कुछ अलग करने की प्रेरणा दिया। आर्थिक रूप से सामर्थ्यवान न होते हुए भी लम्बे समय से दिव्यांग बच्चों का जीवन स्तर ऊंचा करने में जुटे हैं । सैनी ने वकालत की पढ़ाई करने के बाद अपने परिवार के रोजी-रोटी का सपना देखा था किंतु बात वर्ष 2009 की है जब वह अपने एक रिश्तेदार के यहां गए थे जहां दो मानसिक व शारीरिक दिव्यांग बच्चों की परिजनों द्वारा ही की जा रही उपेक्षा और तिरस्कार को देखकर उनका मन द्रवित हो उठा और उन्होंने संकल्प लिया कि जीवन में इन मानसिक व शारीरिक दिव्यांगों के लिए कुछ करना है । वापस लौटकर उन्होंने अपनी इस भावना को जब पत्नी पिंकी सैनी से अभिव्यक्त किया तो वह भी पति के विचारों से प्रेरित हो गई और उनके इस अभियान में कदम से कदम मिलाकर चलना शुरू कर दिया। पति-पत्नी दोनों ने पहले तो रांची से दिव्यांगों को शिक्षा प्रदान करने के गुण वाले विशेष बीएड का कोर्स किया। इसके पश्चात उन्होंने आसपास के गांवों में घूम कर दिव्यांग बच्चों को चिन्हित किया तो उन्हें 60 से अधिक बच्चे मिले इन बच्चों को शिक्षा देने हेतु क्षेत्र के तमाम सम्मानित लोगों से मिलकर आर्थिक संसाधनों का प्रबन्ध किया। काफी लोगों ने योगदान भी दिया । ऐसे में उनकी मुलाकात आजमगढ़ निवासी संतोष श्रीवास्तव और उनकी पत्नी रुबी श्रीवास्तव से हुई तो वह सैनी के इस अभियान से इस कदर प्रेरित हुए की अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार हो गए और फिर बिना किसी सरकारी सहयोग के कस्बे में किराए का मकान लेकर मानसिक व शारीरिक विकलांग बच्चों को घर-घर से लाकर उन्हें शिक्षा देने के साथ-साथ बड़े बच्चों को रोजगारपरक प्रशिक्षण जैसे- अखबार का लिफाफा, अगरबत्ती, मोमबत्ती आदि बनाने का भी गुण सिखाते हैं । बच्चों के प्रोत्साहन के लिए उनकी बनाई वस्तुओं को स्वयं खरीदते हैं । स्कूल से जब भी उन्हें छुट्टी मिलती है तो वह अपने दिव्यांग मित्रों से मिलने के लिए गांवों में निकल जाते हैं । बच्चे भी अपने गुरु की कार्यप्रणाली के इस कदर कायल है कि वह उन्हें देखते ही पुलकित हो जाते हैं । उन्होंने अपने इस कार्य को विस्तारित करने व वैधानिकता प्रदान करने हेतु अभिलेखीय तौर पर एक संस्था का गठन करके आज भी वह पूरी निष्ठा से अपने कार्यों में जुटे हैं । उनके इन समाजसेवी कार्यों का जहां हर कोई कायल है वहीं शासन-प्रशासन द्वारा सहयोग की बात तो दूर बल्कि ऐसे शिक्षक के प्रोत्साहन हेतु सम्मानित करना भी उचित नहीं समझा।

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