"गुरु- शिष्य परंपरा मे शिक्षा और दीक्षा की वास्तविक प्रासंगिकता"

Youth India Times
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रिपोर्ट -अशोक जायसवाल

शिक्षक दिवस 5 सितम्बर पर विशेष 

बलिया। शिक्षक दिवस के अवसर पर गुरु- शिष्य परम्परा पर कल्याण सिंह (गोल्ड मेडेलिस्ट)

स्वतंत्र टिप्पाणिकार का आज के परिवेश में ज्वलंत लेख यूथ इंडिया टाइम्स की तरफ से आपके लिए प्रस्तुत है। 


प्रस्तावना-

 "गुरु तो विष्णु समान हैं, गुरु विष्णु एक होय! 

विष्णु गुरु एक जानहु, प्रगटत पालत सोय!! "

         सीखना और जानना एक जीवन मे  अनवरत प्रक्रिया हैं। व्यक्ति जन्म के बाद ही इस धरा पर अवतरित होने के बाद किसी न किसी माध्यम के द्वारा तथ्यों को सीखना तथा जानता हैं। इस प्रक्रिया में उम्र तथा अवस्था कोई मायने नही रखती हैं, साथ ही साथ न ही इसके मापने का कोई विशिष्ट पैमाना हैं। जिससे यह जाना जा सके कि सीखने और जानने की सबसे अच्छी अवस्था क्या है।  यह जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जो जीवन के आरंभिक चरणो से लेकर अंतिम चरण तक चलती रहती हैं! 

परिवार समाज की पहली  विशिष्ट इकाई हैं, जिस मे पैदा होकर ब्यक्ति सिखता और परिवार, समाज को जानता हैं! इन सीखने की  प्रारंभिक चरण प्रक्रिया मे उसका प्रथम गुरु माता- पिता ही होते हैं, जिनसे संस्कारो, विचारों, व्यवहारों, तथा चरित्र निर्माण होता हैं!

इस सांचे मे ढलने के बाद शिष्य को किसी तत्वदर्शी, दुर्दर्शी, गुरु की जरूरत महसूस होने लगती हैं!

कहा ही गया हैं कि-

"बिनु वैराग्य मुक्ति नही, अनुराग भजन नही!

बिनु गुरु मिलत न ज्ञान"!! 


अर्थात बिना वैराग्य के न ही मुक्ति मिल सकती हैं और न ही बिना अनुराग के भगवान की भजन भी नही संपन्न हो सकती हैं!ठीक उसी प्रकार बिना गुरु के ज्ञान और विवेक प्राप्ति की अभिलाषा की कल्पना नही की जा सकती हैं.! 

अर्थात गुरु ज्ञान हैं, गुरु ध्यान हैं, गुरु जीवन की पहचान हैं, गुरु ज्ञान की ज्योति हैं, गुरु जीवन की मोती हैं, गुरु ज्ञान का प्रकाश हैं, गुरु शिष्य की आश हैं, गुरु जीवन का भाग्य विधाता हैं! 

अर्थात जीवन मे जिस प्रकार सीखना और जानना एक ही सिक्के के दो पहलू की महत्वपूर्ण  प्रक्रिया हैं, ठीक उसी प्रकार गुरु _शिष्य इस अनवरत प्रक्रिया के वाहक तथा संवाहक हैं! जीवन मे शिक्षा तथा दीक्षा दो प्रक्रिया हैं ! जिस प्रकार किसी जीवन रूपी गाड़ी के सफलता पूर्वक निर्वहन के लिए दो पटरी की आवश्यकता होती हैं! उसी प्रकार इस मनुष्य रूपी जीवन के सफलता पूर्वक निर्वहन के लिए प्रारंभिक चरण मे ही शिक्षा के साथ -साथ दीक्षा अत्यंत जरूरी हैं.! 

शिक्षा तथा विद्या की प्राप्ति के लिए किसी तत्वदर्शी लौकिक गुरु की अत्यंत आवश्यकता होती हैं, गुरु ज्ञान के गूढ़ रहष्यो की गुत्थी को बड़े ही आसानी तरीके से खोलकर शिष्य का  ज्ञानवर्धन कर देता हैं-! 

अर्थात गुरु उस भिलनी रूपी कीट की तरह हैं जो शिष्य का रूपांतरण करके उसको जीव से ब्रह्म बनाते हैं,! जिस प्रकार एक भिलनी एक कीट को अधमरा करके अपने बिल मे बंद करके बाहर से शब्द का गुंजन करती हैं और उस शब्द के प्रभाव से वह कीट कुछ समय पश्चात उसका रूप और स्वरूप बदल जाता हैं,!ठीक उसी प्रकार जब एक शिष्य जब अपने  गुरु के सानिध्य को प्राप्त कर लेता हैं,तो वह उसे शब्द रूपी ज्ञान से उसका रूपांतरण करके जीव से ब्रह्म मे बदल देते हैं.! जीवन मे गुरु प्राय दो प्रकार के होते हैं एक लौकिक गुरु तथा दूसरे परलौकिक गुरु! 

लौकिक गुरु ही शिष्य के वर्तमान तथा भविष्य का निर्माता होता हैं! शिक्षा प्राप्ति के बाद जीवन मे दीक्षा भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया हैं! यह भी मानव जीवन की अत्यंत जीवित संस्कार तथा विधा हैं जिसमे शिष्य को ज्ञान देकर द्विज् बनाया जाता हैं! आज  भी गुरु -शिष्य परंपरा समाज मे ज्वलंत हो रही हैं। 


वर्तमान मे गुरु- शिष्य परंपरा का स्वरूप- वर्तमान परिवेश अत्यंत भयावह हैं, अतीत मे गुरु - शिष्य परंपरा का ऐसा दृश्य था कि तत्वदर्शी गुरु से ज्ञान प्राप्ति के लिए समर्पण का भाव जागृत होता था। परन्तु वर्तमान दौर मे दोनों संबंधों मे अत्यंत गिरावट आयी हैं, जिसका दोषरोपण किसी एक पर करना अच्छा प्रतीत नही जान पड़ता हैं। अब समर्पण भाव रूपी शिष्य भी कम ही हैं तो वही दूसरी ओर  तत्वदर्शी गुरुओं की संख्या में कमी भी समाज के लिए अत्यंत चिंताजनक है।

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