आजमगढ़: पिता ने रखी निःशुल्क ग्रामीण चिकित्सा शिविर की नींव

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निःशुल्क ग्रामीण चिकित्सा शिविर के 12 वर्ष पूरे
आजमगढ़। असली सफलता वही है जिससे दूसरों को ख़ुशी मिले। जीवन में सफलता का अर्थ हमेशा अधूरा रह जाता है, यदि आप दूसरों के जीवन में बदलाव और खुशी के लिए कुछ नहीं करते हैं। यह बात मुझे उस वक्त समझ में आई थी, जब मैं गाँव पर रहकर पढ़ाई करता था। मेरे पिता श्री धर्मदेव सिंह प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। उनकी ड्यूटी गाँव के बच्चों को पढ़ाना था। हमारे गांव के बगल के गाँव में एक विद्यार्थी अंगद थे, जिनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण वे स्कूल आना छोड़ दिए थे। पिताजी को जब इस बात का पता चला तो वे परिवार वालों से मिलने गए। सारी बात सुनने के बाद उन्होंने अंगद के लिए दो जोड़ी कपड़े बनवाए और कहा कि अब रोज स्कूल आना तथा यदि कोई और परेशानी हो तो बताना। इस प्रकार कपड़े न होने के कारण जो बच्चा स्कूल नहीं आ रहा था, पिताजी की मदद से वह स्कूल आने लगा। कुछ समय बीत जाने पर अंगद का गाँव के कुछ बच्चों से झगड़ा हो गया। इस पर बच्चों ने कहा कि अब स्कूल आओगे, तो रास्ते में तुम्हें मारेंगे। अंगद फिर स्कूल आना छोड़ दिए। पिताजी को जब कारण पता चला तो वे रोज सुबह अपने घर से अंगद के घर जाते, वहाँ से उनको लेकर स्कूल आते तथा छुट्टी होने पर पहले अंगद को घर छोड़ते फिर अपने घर आते। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। जब यह बात मुझे पता चली तब मेरे अंदर यह विचार घर कर गया कि लोगों और समाज के लिए कुछ न कुछ करना है। मैं बचपन से यह देखता था कि पिता जी अक्सर लोगों के लिए कुछ ना कुछ करते रहते थे। उनकी इन आदतों ने मेरे जीवन पर बहुत ज्यादा प्रभाव डाला। आप सबको यह बताना चाहता हूं कि निःशुल्क ग्रामीण चिकित्सा शिविर का आयोजन करके गरीब मरीजों के लिए, समाज के लिए आज मैं जो भी कर रहा हूं वह पिता जी से मिली सीख का ही परिणाम है। कई बार लोगों को यह लगता है कि वह बहुत ही साधारण सा है, उसके अंदर कोई बड़ा गुण नहीं है। कुछ बड़ा और अलग करने की क्षमता नहीं है। पर याद रखिए हर इंसान के अंदर कोई न कोई गुण होता है, जरूरत होती है तो उसे जानकर उसका अभ्यास करने की। आपको यह समझना होगा कि जो गुण आपके अंदर है, उसके आधार पर स्वयं में और समाज में क्या परिवर्तन ला सकते हैं। मैंने जो देखा और समझा उससे यह जाना कि मेरे पिता जी बेशक एक छोटे से पद पर थे पर वह सपने हमेशा बड़े देखते थे। एक बार उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के नाटक कफ़न का ज़िक्र करते हुए कहा कि उस नाटक में बच्चे के इलाज के लिए उसके पिता के पास पैसे नहीं थे तो उसने पैसे के लिए अपना खून बेचना चाहा। यह देखकर और सुनकर कलेजा मुँह को आ जाता है। पिताजी की इच्छा थी कि हर चिकित्सक को सप्ताह में एक दिन गरीबों को ध्यान में रखते हुए निःशुल्क चिकित्सा करनी चाहिए, जिससे कोई गरीब का बच्चा इलाज से वंचित न रह जाए। पिता जी ने कहा कि एक असहाय मरीज की सेवा करने से चेहरे पर जो खुशी और तेज दिखता है वह बड़े से बड़े लोगों के चेहरे पर नहीं दिखाई देता। तब मैंने ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो समाज के लिए कुछ न कुछ करूंगा। आज मैं जो भी कर रहा हूँ या कर पा रहा हूँ, वह सब मेरे पिताजी की देन है।
निःशुल्क चिकित्सा शिविर के 12 वर्ष पूरे होने पर आज दिन भर चहल पहल रही। सभी लोग मुक्त कंठ से डॉ. डी.डी. सिंह के इस कार्य की सराहना कर रहे थे। डॉ. डी.डी. सिंह द्वारा आये हुए सभी बच्चों की जाँच करके सबको मुफ्त दवा भी दी गई। इस अवसर पर अगल बगल के दर्जनों गाँव के मरीजों का इलाज डॉ. सिंह द्वारा किया गया।

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